बुद्ध को बुद्धत्व ~ ओशो


बुद्ध के जीवन में घटना है कि बुद्ध ने छह वर्ष तक बड़ी खोज की। शायद ही किसी मनुष्य ने इतनी त्वरा से खोज की हो। सब कुछ दांव पर लगा दिया। जो भी जिसने बताया उसे पूरा-पूरा किया। तो कोई भी गुरु बुद्ध को यह न कह सका कि तू पहुंच नहीं रहा है, क्योंकि तेरी चेष्टा कम है। यह तो असंभव था। यह तो कहना ही संभव न था। क्योंकि चेष्टा तो उनकी इतनी समग्र थी कि उस संबंध में कोई भी शिकायत न की जा सकती थी। जो जिसने कहा, वह उन्होंने पूरी तरह किया।





किसी गुरु ने कहा कि सिर्फ एक चावल के दाने पररोज एक चावल का दाना ही भोजन में ले करतीन महीने तक रहो, तो वे वैसे ही रहे। सूख कर हड्डी-हड्डी हो गए। पीठ पेट एक हो गए। श्वास लेना तक मुश्किल हो गया। क्योंकि इतनी कमजोरी आ गयी।

जो जिसने बताया, वह उन्होंने पूरा किया। सब कर डाला, ज्ञान नहीं हुआ। क्योंकि किए से कभी ज्ञान नहीं होता। सब कर डाला, लेकिन उसमें भी कर्ता का भाव तो बना ही रहा। उपवास किया, जप किया, तप किया, योग साधा, लेकिन भीतर एक सूक्ष्म अहंकार तो बना ही रहा कि मैं कर रहा हूं। मुट्ठी बंधी रही। मैं मौजूद रहा।

और उसे पाने की तो शर्त एक ही है कि मैं खो जाए। इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम दूकान चला रहे हो कि पूजा कर रहे हो? दोनों हालत में मैं तो बना रहता है। दूकान भी तुम चलाते हो, पूजा भी तुम ही करते हो। दोनों दूकानें हैं। जहां तक अहंकार है, वहां तक दूकान है। जहां तक अहंकार है, वहां तक व्यवसाय है, वहां तक संसार है। जिस क्षण अहंकार गिरता है, उसी क्षण परमात्मा शुरू होता है। इधर तुम गिरे, उधर वह हुआ। तुम गए बाहर, वह आया भीतर। और दोनों एक साथ न रह सकोगे। वहां दुई नहीं चल सकती। वहां एक ही रह सकता हैया तो तुम या वह!

अंततः बुद्ध थक गए। सब कर लिया, कुछ भी न पाया। हाथ खाली के खाली रहे। निरंजना नदी में स्नान कर के निकलते थे, वे इतने कमजोर थे कि निकल न सके। नदी बहाने लगी। तैरने की भी क्षमता नहीं। सिर्फ किनारे से लटकी एक वृक्ष की शाखा को पकड़ कर लटके रहे। उस क्षण उन्हें विचार आया कि मैंने सब कर लिया और कुछ न पाया। सच तो यह है कि यह सब करने में मैंने अपनी सारी शक्ति भी गंवा दी। और जब मैं इतना कमजोर हो गया कि इस छोटी सी नदी को पार नहीं कर पाता, तो भवसागर को कैसे पार कर पाऊंगा?

यह कर-कर के इतना ही हाथ लगा। संसार तो पहले ही व्यर्थ हो गया था। वह तो दौड़ बेकार हो गयी थी। राजमहल पहले ही व्यर्थ हो गया था। धन मिट्टी हो चुका था। उस क्षण थकान इतनी गहरी हो गयी भीतर कि अध्यात्म भी व्यर्थ हो गया। मोक्ष भी व्यर्थ हो गया। बुद्ध के मन में उस क्षण उठा कि न तो संसार में कुछ पाने योग्य है, न मोक्ष में कुछ पाने योग्य है, और न कोई और कुछ पा सकता है। यह सारी कथा ही व्यर्थ है। यह सारी दौड़-धूप व्यर्थ है।

किसी तरह बाहर निकले। वृक्ष के नीचे बैठ गए। और उस क्षण उन्होंने सारी चेष्टा छोड़ दी, क्योंकि अब कुछ पाने को ही न रहा। और पा-पा कर, सब प्रयास कर के देख लिया, कुछ मिलता भी नहीं। विषाद परिपूर्ण हो गयाफ्रस्ट्रेशन टोटल; अब रत्तीभर आशा न रही। जब तक आशा है तब तक अहंकार बना रहेगा। उस रात उस वृक्ष के नीचे वे सो गए। यह पहली रात थी जन्मों-जन्मों के बाद, जब पाने को कुछ भी नहीं था, जाने को कहीं नहीं था। कुछ बचा नहीं था। अगर मृत्यु उसी वक्त आ जाती, तो बुद्ध यह न कहते मृत्यु से कि एक क्षण रुक जा। क्योंकि रुकने की कोई जरूरत न थी। सब आशाएं टूट गयीं।

थकान का अर्थ है, जहां सब आशा के इंद्रधनुष गिर गए। सब सपने बिखर गए। उस रात बुद्ध सो गए। उस रात कोई सपना भी न उठा। जब पाने को ही कुछ न रहा तो सपने उठने बंद हो जाते हैं। उस रात कोई विचार भी मन में न आया। क्योंकि सब विचार वासनाओं के अनुचर हैं। वे वासनाओं के पीछे चलते हैं। वासना आगे चलती है, विचार पीछे छाया की तरह चलते हैं। वे वासना के चाकर हैं। जब कोई वासना नहीं, तो विचार भी कोई नहीं।
सुबह नींद खुली। रात का आखिरी तारा डूबने के करीब था। बुद्ध की आंखें खुलीं। उठ कर भी करने को कुछ नहीं था। आज सब व्यर्थ हो गया था। कल तक तो दौड़ थी, धर्म पाना था, आत्मा पानी थी, परमात्मा पाना था। आज कुछ भी पाना नहीं था। अब अपने किए कुछ होता ही नहीं; तो पड़े रहे। आखिरी तारा डूबता गया और वह चुपचाप देखते रहे। और कथा है कि उसी क्षण में ज्ञान उपलब्ध हुआ।

क्या हुआ उस क्षण में? जो इतना पा कर न मिला, जो इतनी कोशिश से न मिला, जो इतने दौड़ने से न मिला, उस रात क्या घटा? उस सुबह कौन सी अनूठी बात हुई कि उस वृक्ष के नीचे लेटे-लेटे बुद्ध परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए?
घटना यह घटी, जिसकी नानक बात कर रहे हैं, थकान आ गयी, अहंकार बिलकुल ही बिखर गया। मेरे किए कुछ भी न होगा, सब प्रयास छूट गए। और जैसे ही प्रयास छूटता है, प्रसाद उपलब्ध होता है। जैसे ही तुम्हारी आशा खतम हो जाती है, जैसे ही तुम्हारी दौड़-धूप रुक जाती है, आपाधापी बंद होती है, जैसे ही तुम्हारा अहंकार गिर जाता है, मुट्ठी खुल जाती है।

ओशो

Comments

Popular Posts

वासना और प्रेम ~ ओशो

माया से नहीं, मन से छूटना है ~ ओशो

परशुराम को मै महापुरुष मानता ही नही ~ ओशो