जीवेष्णा ~ ओशो
मैंने सुना है, इजिप्त में एक
आश्रम था।
और उस आश्रम में आश्रम के नीचे ही मरघट था।
जमीन को खोद कर नीचे मरघट
बनाया था।
हजारों वर्ष पुराना आश्रम था।
मीलों तक नीचे जमीन खोद कर उन्होंने
कब्रगाह बनाई हुई थी।
जब कोई भिक्षु मर जाता, तो पत्थर उखाड?
कर,
उस
नीचे के मरघट में डाल कर चट्टान बंद कर देते थे।
एक बार एक भिक्षु मरा।
लेकिन कुछ
भूल हो गई।
वह मरा नहीं था, सिर्फ बेहोश हुआ था।
उसे मरघट में नीचे
डाल दिया।
चट्टान बंद हो गई।
पांच-छह घंटे बाद उस मौत की दुनिया में उसकी आंखें
खुलीं, वह होश में आ गया।
उसकी मुसीबत हम सोच सकते हैं!
सोच लें कि हम उसकी
जगह हैं।
वहां लाशें ही लाशें हैं सड़ती हुई, दुर्गंध,
हड्डियां,
कीड़े-मकोड़े,
अंधकार,
और
उस भिक्षु को पता है कि जब तक अब और कोई ऊपर न मरे, तब तक चट्टान का
द्वार न खुलेगा।
और उसे यह भी पता है कि अब वह कितना ही चिल्लाए...चिल्लाया,
जानते
हुए भी चिल्लाया कि आवाज ऊपर तक नहीं पहुंचेगी...क्योंकि आश्रम मील भर दूर है।
और
मरघट पर तभी आते हैं आश्रम के लोग जब कोई मरता है। और बड़ी चट्टान से द्वार बंद है।
फिर भी, जानते हुए... हम भी बहुत बार जानते हुए चिल्लाते हैं, जानते
हुए कि आवाज नहीं पहुंचेगी।
मंदिरों में लोग चिल्ला रहे हैं, जानते
हुए कि आवाज कहीं भी नहीं पहुंचेगी।
हम सब चिल्ला रहे हैं जानते हुए कि आवाज नहीं
पहुंचेगी।
आदमी जानते हुए भी चिल्लाए चला जाता है, जहां आशा नहीं
है वहां भी आशा किए चला जाता है।
वह आदमी बहुत चिल्लाया, चिल्लाया,
उसका
गला लग गया, आवाज निकलनी बंद हो गई।
शायद हम सोचेंगे कि उस
आदमी ने आत्महत्या कर ली होगी। लेकिन नहीं, उस आदमी ने
आत्महत्या नहीं की।
वह आदमी थोड़े-बहुत दिन नहीं, सात साल उस कब्र
के भीतर जिंदा रहा।
वह कैसे जिंदा रहा?
उसने सड़ी हुई लाशों को खाना शुरू कर
दिया।
उसने कीड़े-मकोड़े, जो लाशों में पलते थे, उनको खाना शुरू
कर दिया।
मरघट की दीवालों से नालियों का जो पानी चूता था, वह चाट कर पीने
लगा।
इस प्रतीक्षा में कि कभी न कभी तो कोई मरेगा ही।
द्वार तो खुलेगा ही।
आज नहीं
कल, कल नहीं परसों।
कब सूरज उगता, उसे पता न चलता;
कब
रात आती, उसे पता न चलता।
सात साल बाद कोई मरा, चट्टान उठाई गई,
तो
वह आदमी बाहर निकला।
और वह खाली बाहर नहीं निकला।
इजिप्त में रिवाज है कि मरने
वाले आदमियों को नये कपड़े पहना दिए जाते और उनके साथ दो-चार कपड़े कीमती रख दिए
जाते, कुछ पैसे-रुपये भी रख दिए जाते।
तो उसने सब मुर्दों के कपड़े और पैसे
इकट्ठे कर लिए थे, जब निकलेगा तो लेता चला जाएगा।
तो वह एक बड़ी
पोटली बांध कर कपड़े और एक बड़ी थैली में सब रुपये भर कर बाहर आया।
उसे तो कोई पहचान
ही नहीं सका, मरघट पर जो लोग आए थे वे तो घबड़ा कर भागने लगे
कि वह कौन है!
उसके बाल जमीन छूने लगे थे, उसकी आंखों की पलकें इतनी बड़ी हो गई
थीं कि आंख नहीं खुलती थी।
उसने कहा, भागते हो? पहचाने नहीं?
मैं
वही हूं जिसे तुम सात साल पहले नीचे डाल गए थे।
उन्होंने कहा, लेकिन
तुम जिंदा कैसे रहे? अगर छह घंटे बाद होश में भी आ गए थे तो बचे
कैसे?
तुमने आत्महत्या न कर ली! सात साल तुम इस मरघट में रहे कैसे? उस
आदमी ने कहा, मरना इतना आसान तो नहीं है! मैं भी सोचता था।
मैं भी यही सोचता, अगर कोई और उस मरघट में गिरा होता, तो
मैं भी यही सोचता कि पागल, जीने की बजाय मर जाते! लेकिन अब मैं कह
सकता हूं: मरना इतना आसान नहीं है।
मैंने जीने की पूरी कोशिश की।
और जीने के लिए
मैंने जो भी किया है वह भी घबड़ाने वाला है। आज अगर फिर से सोचूं तो शायद न कर
पाऊं।
हम भी सोचेंगे कि वह आदमी कैसा आदमी रहा होगा! लेकिन वह आदमी ठीक हमारे जैसा
आदमी था।
हम भी उसकी जगह होते तो यही करते।
और जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं, क्या
वह जिंदगी उस मरघट से बहुत भिन्न है? और जिसे हम भोजन कह रहे हैं, क्या
वह उस मरघट में किए गए भोजन से बहुत भिन्न है? और जिसे हम कपड़े
और रुपये का इकट्ठा करना कह रहे हैं, वह भी क्या मुर्दों से छीने गए रुपये
और कपड़े नहीं हैं? बाप बूढ़ा हो गया हो, तो चाहे बच्चे
कहें या न कहें, सोचते हैं कि विदा हो जाए।
वे मुर्दे के कपड़े
और पैसे छीनने के लिए उत्सुक हैं। राष्ट्रपति को शुभकामनाएं भी देते हैं लोग।
उपराष्ट्रपति जन्मदिन पर जाकर फूलमालाएं भी चढ़ाते हैं और मन में भगवान से
जाने-अनजाने प्रार्थना भी करते हैं: कब तक टिके रहिएगा? क्योंकि वे विदा
हों तो उनकी मरी हुई कुर्सी किसी को, कोई उस पर सवार हो जाए। इसलिए दिल्ली
में कोई मरता है, तो जो लोग चेहरे आंसू लिए हुए मरघट की तरफ ले
जाते मालूम पड़ते हैं, वे ही तैयारी भी कर रहे होते हैं उसी वक्त कि
कौन उसकी मरी हुई कुर्सी पर बैठ जाए।
कहीं ऐसा न हो कि दूसरा बैठ जाए।
बल्कि मरघट
पर ले जाते वक्त भी इस बात की होड़ रहती है कि मुर्दे को सबसे पहले कौन हाथ दे रहा
है, क्योंकि उसका कुर्सी पर कब्जा हो सकता है।
मैंने सुना है कि गांधी
मरे तो जिस टैंक पर चढ़ा कर उनको ले जाया गया था उस पर भी खड़े होने की प्रतियोगिता
थी कि कौन-कौन नेता उस पर खड़े हो जाएं।
क्योंकि दुनिया उनको देख ले कि वसीयतदार
कौन है! यह जिसको हम जिंदगी कहते हैं, यह भी एक बड़ा मरघट है, जिसमें
क्यू है मरने वालों का।
कोई अभी मरेगा, कोई थोड़ी देर बाद, कोई
फिर थोड़ी देर बाद, कोई कल, कोई परसों,
लेकिन
सब मरेंगे।
और इसमें जो मकान हैं हमारे पास, वे मुर्दों से
छीने गए हैं, और जो कपड़े हैं वे भी, और जो धन है वह
भी। और यहां भी हम जी रहे हैं बिना किसी आनंद को जाने, बिना किसी शांति
को पाए, लेकिन सिर्फ एक आशा में कि शायद कल शांति मिले, कल
आनंद मिले, कल कुछ मिल जाए। तो कल तक तो जीने की कोशिश
करो। किसी भी भांति कल तक जी लो। कल शायद कुछ मिल जाए। लेकिन मैं आपसे यह कहना
चाहता हूं कि जो मरने के लिए तैयार नहीं है, उसे कभी कुछ न
मिल सकेगा। और हम बहुत बार मरे हैं। लेकिन हम मरने से इतने भयभीत हैं कि मरने के
बहुत पहले बेहोश हो जाते हैं।
इसलिए हमें मृत्यु की कोई याद नहीं रह जाती। हम बहुत
बार मरे हैं और बहुत बार जन्मे हैं, लेकिन हर बार मरने और जन्मने की क्रिया
इतनी ज्यादा हमें डरा देती है कि हम बेहोशी में ही पैदा होते हैं और बेहोशी में ही
मरते हैं। इसलिए उसकी मेमोरी, उसकी स्मृति नहीं बन पाती और गैप पड़
जाता है। इसलिए पिछले जन्म की भी स्मृति हमें नहीं रह जाती।
पिछले जन्म की स्मृति
न रह जाने का और कोई कारण नहीं है, पिछले जन्म की स्मृति न रह जाने का एक
ही कारण है कि बीच में आई मृत्यु, और मृत्यु में हम इतने भयभीत हो गए कि
बेहोश हो गए। और उस बेहोशी का जो अंतराल है, उसने स्मृति को
दो हिस्सों में तोड़ दिया।
पिछली स्मृति अलग टूट गई, यह स्मृति अलग
टूट गई। इतना बड़ा बीच में गैप, अंतराल पड़ गया कि दोनों को जोड़ना
मुश्किल है।
ओशो
Absolutely true🙏
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