ओशो का स्वर्णिम बचपन
मैं छोटा था तो मुझे बाल बड़े रखने का शौक था—इतने
बड़े बाल कि मेरे पिता को अक्सर झंझट होती थी, क्योंकि उनके
ग्राहक उनसे पूछते कि लड़का है कि लड़की? और उन्हें बड़ी झंझट होती बार—बार
यह बताने में कि भई लड़का है। मुझे तो कोई चिंता नहीं होती थी। लड़की होने में क्या
बुराई थी! मुझसे तो कभी उनका ग्राहक कह देता कि बाई जरा पानी ले आ, तो
मैं ले आता। मगर उनको बहुत कष्ट होता, वे कहते कि बाई नहीं है। मेरे लड़के को
तुम लड़की समझ रहे हो। तो लोग कहते, लेकिन इतने बड़े—बड़े बाल! तो
उन्होंने मुझसे एक दिन कहा कि ये बाल काटो, कि दिन भर की
झंझट है, और या फिर तुम दुकान पर आया मत करो।
घर—दुकान एक थे, तो जाने का कहीं
कोई उपाय भी न था। और छुट्टी के दिन तो उनको बहुत मुश्किल हो जाती, वे
कहते कि सुबह से सांझ तक मैं यह समझाऊं कि दूसरा काम करूं? क्योंकि लोग
पूछते हैं कि फिर इतने बड़े बाल क्यों? तो आप कटवा क्यों नहीं देते? तो
तुम बाल कटवा डालो। मैंने उनसे कहा बाल तो नहीं कटेंगे। तो उन्होंने मुझे चपत मार
दी। बस उस दिन मेरे उनके बीच एक बात निर्णीत हो गई, फैसला हो गया।
मैं गया और मैंने सिर घुटवा डाला। जब मैं लौट कर आया, बिलकुल घुटमुंडा,
चोटी
भी नहीं। उन्होंने कहा यह तूने क्या किया? मैंने कहा. मैंने बात जड़ से ही मिटा दी,
अब
दुबारा बाल नहीं बढ़ाऊंगा। उन्होंने कहा लेकिन इस तरह सिर घुटाया तब जाता है जब
पिता मर जाते हैं। मैंने कहा जब आप मरेंगे तो मैं नहीं घुटाऊंगा। बात खत्म हो गई।
सो तुम देख रहे हो, वे मर गए,
मैंने
नहीं घुटाया। एक वायदा था वह निभाना पड़ा। वे भी समझ गए कि मुझसे सोच—समझ
कर बात करनी चाहिए। ऐसा चांटा मारना आसान नहीं है!
अब लोग उनसे पूछने लगे कि यह क्या हुआ? क्योंकि
गांव, छोटा गांव, वहां सिर घुटाया ही तब जाता है जब पिता
मर जाए। लोग कहने लगे, आप जिंदा हैं और यह आपके लड़के को क्या हुआ?
अब
मैं और वहीं बैठने लगा दुकान पर जाकर। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं हाथ जोड़ता हूं।
इससे तो बाल ही बेहतर थे, कम से कम मैं जिंदा तो था, अब
ये मुझसे पूछते हैं कि आप क्या मर गए! यह लड़के ने बाल क्यों घुटाए?
मगर उस दिन बात निर्णय हो गई, मेरे
और उनके बीच हिसाब साफ हो गया। एक बात पक्की हो गई कि मेरे साथ और बच्चों जैसा
व्यवहार नहीं किया जा सकता। या तो इधर या उधर, या तो इस पार या
उस पार। मैंने उनसे कहा, या तो बाल बड़े रहेंगे या बिलकुल नहीं रहेंगे।
आप चुन लो उन्होंने कहा, जो तेरी मर्जी। अब यह मैं बात ही नहीं
उठाऊंगा। मैंने कहा यही बात नहीं, आप और बातों के संबंध में भी साफ कर
लो।
जब मैं विश्वविद्यालय से वापस लौटा तो मित्र
उनसे पूछने लगे कि बेटे का विवाह कब करोगे? तो उन्होंने कहा
मैं नहीं पूछ सकता। क्योंकि अगर उसने एक दफे नहीं कह दिया तो बात खत्म हो गई,
फिर
हां का कोई उपाय न रह जाएगा। तो वे अपने मित्रों से पुछवाते थे। अपने मित्रों से
कहते कि तुम पूछो, वह एक दफे हां भरे, कुछ हां की थोड़ी
झलक भी मिले उसकी बात में, तो फिर मैं पूछूं। क्योंकि मेरा उससे
निपटारा एक दफे अगर हो गया, नहीं अगर हो गई तो बात खत्म हो गई।
सो आप देखते हैं. न उन्होंने मुझसे पूछा,
तो
परिणाम यह हुआ कि अविवाहित रहना पड़ा। उन्होंने पूछा ही नहीं। मित्र उनके पूछते थे,
मैं
उनसे कहता कि उनको खुद कहो कि पूछें। यह बात मेरे और उनके बीच तय होनी है, तुम्हारा
इसमें कुछ लेना—देना नहीं है, तुम बीच में मत
पड़ो। सो न उन्होंने कभी पूछा, न झंझट उठी।
सरल थे, बहुत सरल थे। और
सरलता चीजों को समग्रता से ले लेती है। एक ही छोटी सी घटना ने, वह
चांटा मारने ने एक बात उन्हें साफ कर दी कि मेरे साथ साधारण बच्चों जैसा व्यवहार
नहीं किया जा सकता। मुझे डांटना—डपटना
भी हो तो सोच लेना पड़ेगा। मुझसे यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा करो वैसा करो। तो फिर
वे अगर मुझसे कभी कुछ कहते भी तो कहते, ऐसा मेरा सुझाव है, कर
सको तो करना, नहीं कर सको तो मत करना। मैं कोई आशा नहीं दे
रहा हूं। फिर उन्होंने मुझे कोई आज्ञा नहीं दी।
मेरे उनके बीच जो संबंध बनता चला गया, वह
साधारण पिता और बेटे का संबंध नहीं रहा। वह बहुत जल्दी खत्म हो गया— साधारण
बेटे और पिता का संबंध। शरीर का संबंध बहुत जल्दी समाप्त हो गया, आत्मा
का संबंध निर्मित होता चला गया।
सरल थे बहुत। लोग उनसे कहते थे कि इतने लोग
संन्यास ले लिए— मेरी मां ने भी संन्यास ले लिया— आप
क्यों संन्यास नहीं लेते? वे कहते, मैं प्रतीक्षा
कर रहा हूं। जिस दिन यह सहज भाव उठेगा उसी क्षण ले लूंगा। और सुबह छह बजे एक दिन
लक्ष्मी भागी हुई आई। वे यहीं ठहरे थे, लक्ष्मी के कमरे में ही रुके थे,
पीछे
जो कमरा है मुझसे उसमें ही रुके हुए थे। छह बजे लक्ष्मी भागी आई, उसने
कहा कि वे कहते हैं— संन्यास, इसी क्षण,
अभी!
क्योंकि वे तीन बजे से रोज ध्यान करने बैठ जाते थे। और उस दिन अंतर्भाव उठा। तो
सुबह ठीक छह बजे संन्यास लिया। बहुत मैंने उन्हें रोका कि मेरे पैर मत छुए। कुछ भी
हो, मैं आखिर बेटा हूं। पर उन्होंने कहा, वह बात ही मत
उठाओ। जब मैं संन्यस्त हो गया तो मैं शिष्य हो गया। अब बेटे और बाप की बात खत्म हो
गई।
फिर उन्होंने मुझे पैर नहीं छूने दिए उस दिन के
बाद। वे मेरे पैर छूते थे। शायद ही किसी पिता ने इतनी हिम्मत की हो— इतनी
सरलता, इतनी सहजता! फिर वे मुझसे पूछ कर जीते थे छोटी—छोटी बात में भी—
ऐसा
करूं या न करूं? और जो मैंने उनसे कह दिया वैसा ही उन्होंने
किया, उससे अन्यथा नहीं। और इसीलिए यह अपूर्व घटना घट सकी, अन्यथा
जन्मों—जन्म लग जाते हैं। मैंने अगर उनको कहा कि ध्यान करना है, ऐसा
करना है, तो बस फिर उन्होंने दुबारा नहीं पूछा। फिर वैसा ही करते रहे। फिर यह
भी मुझसे नहीं पूछा कि अभी तक कुछ हुआ नहीं, कब होगा कब नहीं
होगा, ऐसा ही करता रहूं जिंदगी भर? दस साल तक उन्होंने ध्यान किया लेकिन
एक बार मुझसे यह नहीं कहा कि अभी तक कुछ हुआ क्यों नहीं! ऐसी उनकी श्रद्धा और
आस्था थी। एक बार मुझे नहीं कहा कि इसमें कुछ अड़चन हो रही है, कुछ
और विधि तो नहीं है, इसमें कुछ सुधार तो नहीं करने हैं, कुछ
अन्यथा प्रकार का ध्यान तो नहीं करना है! इसको कहते हैं, छोड़ देना—
समर्पण!
इसलिए एक महत घटना घट सकी।
मैं चिंतित था कि कहीं वे बिना बुद्धत्व को
प्राप्त हुए विदा न हो जाएं। क्योंकि उन जैसा व्यक्ति अगर बिना बुद्धत्व को
प्राप्त किए विदा हो जाए तो फिर तुम्हारे संबंध में मुझे बहुत आशा कम हो जाती।
लेकिन वे तुम सबके लिए आशा का दीप बन गए।
मन ही पूजा मन ही धूप🌻
ओशो
Wah dhanvaad ji ♥️,,
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