तुम आनंद को बाहर खोजते हो ~ ओशो


सूफी फकीर राबिया की कहानी, जो मैंने बहुत बार कही है, और मुझे बहुत प्यारी है। राबिया को एक सांझ लोगों ने देखा कि अपने झोंपड़े के बाहर कुछ खोजती है। बूढ़ी औरत। उसका लोग समादर भी करते थे। थोड़ा झक्की भी मानते थे। पूछा लोगों ने, पड़ोस के लोगों ने--क्या खो गया? उसने कहा--मेरी सुई खो गई है। सीती थी, गिर गई। वे भी खोजने लगे। तभी एक बुद्धिमान ने पूछा कि सुई गिरी कहां है? रास्ता तो बहुत बड़ा है। हम खोजते रहें, खोजते रहें, रात हो जाएगी। सुई गिरी कहां है? ठीक-ठीक जगह का पता हो तो खोजना आसान होगा। वहीं हम तलाश लेंगे।




राबिया हंसने लगी। राबिया ने कहाः सुई कहां गिरी, यह तो पूछो ही मत। सुई मेरे घर के भीतर गिरी है। लेकिन वहां अंधेरा है और अंधेरे में कोई खोजे तो कैसे खोजे? बाहर रोशनी है इसलिए बाहर मैं खोजती हूं। वे लोग ठहर गए। उन्होंने कहा, तू तो पागल है, अपने साथ हमें भी पागल बनाया।

राबिया बोली कि नहीं, मैं तो तुम्हारे ही तर्क का अनुसरण कर रही हूं। तुम आनंद को बाहर खोजते हो और तुमने खोया भीतर है। परमात्मा को बाहर खोजते हो और परमात्मा भीतर है। तुम्हारे ही तर्क का अनुसरण कर रही हूं। और तुम्हारा भी कारण यही है, जो मेरा कारण है। भीतर अंधेरा है, बाहर रोशनी मालूम होती है। जब तुम पहली बार भीतर जाओगे, अंधेरा पाओगे|

तुमने कभी खयाल किया, भरी-दुपहरी में मीलों चलकर तुम घर आए हो, तो घर में प्रवेश करते ही अंधकार मालूम होता है। आंखें धूप की आदी हो गई हैं। फिर थोड़े सुसताते हो, आराम कर लेते हो और घर का अंधकार मिटने लगता है। अंधकार था नहीं, तुम्हारी आंखें बहुत प्रकाश की आदी हो गई थीं। इस धीमे-से प्रकाश को नहीं देख पाती थीं। इस मंदिम प्रकाश को नहीं देख पाती थीं। अब देखने लगीं। अब इस प्रकाश के लिए राजी हो गई। तुम्हारी आंखों ने समायोजन कर लिया।

ठीक ऐसी ही घटना भीतर घटती है। तुम बाहर और बाहर और बाहर चलते रहे। बाहर की रोशनी से तुम्हारी पहचान है। भीतर की रोशनी बड़ी मंदिम है। बाहर की रोशनी उत्तप्त है। भीतर की रोशनी बड़ी शीतल है। बाहर की रोशनी ऐसी है जैसी भर-दुपहरी। भीतर की रोशनी? भीतर की रोशनी ऐसी है जैसे सूरज डूब जाए और रात न हो--बीच का अंतराल, संध्या। या सुबह सूरज न उगा हो और रात जा चुकी हो, आखिरी तारा डूबता हो--अंतराल। भीतर की रोशनी मंदिम है, शीतल है, उत्तप्त नहीं। और तुम जन्मों-जन्मों से भीतर नहीं गए हो, तो तुम्हारी आंख भीतर से समायोजित होने में समय मांगेगी

तो जब पहली दफा भीतर जाओगे, अंधकार पाओगे। अंधकार से डर लगता है। और अंधकार देखकर तुम्हें लगेगा कि सब संत व्यर्थ की बातें करते रहे, झूठी ही बातें करते रहे। क्योंकि वे तो सब कहते हैं कि भीतर प्रकाशों का प्रकाश है। जैसे हजार सूरज एक साथ उगे हों! और तुम जब भी भीतर जाओगे, अंधकार पाओगे। तुम घबड़ाकर वापिस लौट आओगे। बाहर कम-से-कम रोशनी तो है! और जीवंत गुरु के पास और क्या होगा, अगर भीतर जाना न होगा? जीवंत गुरु के संस्पर्श में एक ही तो घटना घटनी है--अंतर्यात्रा शुरू होगी। भयंकर अंधकार होगा। अमावस की रात से शुरू होती है साधक की यात्रा और पूर्णिमा पर पूरी होती है। लेकिन प्रथम तो अमावस से साक्षात्कार करना होगा
-          ओशो

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