चंदूलाल के किस्से ~ ओशो
क्या मारवाड़ियों में कुछ भी प्रशंसा योग्य नहीं
होता है?
चंदूलाल मारवाड़ी और ढब्बूजी एक होटल में खाना
खा रहे थे। जब खाना खा चुके तो बैरे ने उनके हाथ धुलाए और खूंटी से कोट उतार कर
खुद अपने हाथों से चंदूलाल मारवाड़ी को पहनाया। चंदूलाल बैरे पर बहुत खुश हुए और
उसे ईनाम के रूप में नगद अठन्नी भेंट दी।
ढब्बूजी तो यह देख कर आश्चर्यचकित रह गए,
बोले
कि चंदूलाल,मारवाड़ी होकर यह क्या करते हो? मित्र
भी मारवाड़ी थे। कहा, क्या बाप-दादों की कमाई इस तरह बर्बाद कर दोगे?
ये
कोई ढंग हैं? आखिर बैरे को आठ आना ईनाम देने की क्या जरूरत
थी? अरे बहुत से बहुत दस पैसे से काम चल जाता। उसकी भी आदत बिगाड़ी,
अपने
बाप-दादों के धन को भी खराब किया। और मुझको भी शर्मिंदा होना पड़ रहा है तुम्हारी
वजह से; अब मैं दस पैसे दूं तो लगता है कंजूस हूं। तुम्हें शर्म नहीं आती?
चंदूलाल मारवाडी ने मुस्कुरा कर ढब्बूजी से कहा,
नाहक
नाराज हो रहे हो, अरे आठ आने में यह कोट क्या मंहगा है? कोट
तो मैं घर से लाया ही नहीं था। और ये आठ आने भी इसी कोट में से निकाल कर दिए हैं।
अपने बाप का इसमें कुछ भी नहीं है।
गजब की चीजें होती हैं मारवाड़ियों में!
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चंदूलाल मारवाड़ी कार से अपने घर वापस लौट रहे
थे। रास्ते में एक सभ्य से दिखने वाले व्यक्ति ने उनसे लिफ्ट मांगी, उन्होंने
लिफ्ट दे दी। देना तो नहीं चाहते थे, क्योंकि मारवाड़ी इतनी आसानी से किसी को
लिफ्ट दे दे! अरे बैठेगा तो सीट भी घिसेगी न! मगर संकोचवश न न कर सके, इनकार
न कर सके। टैक्सियों की हड़ताल थी, इसलिए संकोच खाना पड़ा।
कुछ दूर आगे बढ़ने पर चंदूलाल ने समय देखने के
लिए घड़ी देखी--यह देखने के लिए कि यह दुष्ट कितनी देर बैठेगा? कितना
बजा है और कितनी देर बैठ कर कितनी सीट खराब करेगा? न केवल वह सीट
खराब कर रहा था, बल्कि चंदूलाल का अखबार भी पढ़ रहा था। उससे भी
उनके प्राणों पर बहुत मुसीबत आ रही थी। दिल ही दिल में कह रहे थे कि अगर बड़े
पढ़क्कड़ हो तो अपना अखबार खरीदा करो। मगर कह भी नहीं सकते थे कि अब कहना क्या है!
अब इतनी की है उदारता, तो इतनी सी बात में अब क्या कंजूसी दिखाना,
पढ़
लेने दो! ऐसे भी मैं पढ़ चुका हूं, अपना क्या बिगड़ता है!
घड़ी देखने के लिए कलाई टटोली, लेकिन
कलाई पर घड़ी न थी। चंदूलाल तो एकदम कड़क कर बोले--गुस्सा तो हो ही रहे थे, एकदम
कड़क गए, एकदम चिल्ला कर बोले--चल बे, घड़ी निकाल! हरामजादे कहीं के!
उस सीधे-सादे आदमी ने जल्दी से घड़ी निकाल कर दे
दी। चंदूलाल ने उस बदमाश को वहीं गाड़ी से नीचे उतार दिया।
घर पहुंचे तो गुलाबो बोली कि आज तो आपको दफ्तर
में बड़ी तकलीफ हुई होगी, क्योंकि घड़ी तो आप घर पर ही भूल गए थे।
होती हैं, खूबी की चीजें
होती हैं!
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चंदूलाल मारवाड़ी अपने मुनीम की योग्यताओं से
बड़े प्रभावित थे। जब मुनीम को कार्य करते हुए पूरे बीस साल हो गए तो उन्होंने उसे
बुलवाया और कहा कि श्यामलाल जी, आज आपको हमारे यहां काम करते-करते बीस
साल हो गए। यह मेरी जिंदगी में पहला मौका है कि इतनी कम तनख्वाह में किसी ने इतने
समय तक किसी के यहां नौकरी की हो। हम सोचते हैं कि आपके लिए कुछ किया जाए। हम
सोचते हैं क्यों न आज से आपको स्वामीभक्ति के उपहार की बतौर श्याम की बजाय
श्यामबाबू कह कर बुलाया जाए!
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नसरुद्दीन पूरे पंद्रह वर्ष के बाद अपने मित्र
चंदूलाल से मिलने के लिए आया। दरवाजे पर दस्तक दी, दरवाजा खुला और
चंदूलाल मारवाड़ी की पत्नी गुलाबो बाहर आई। नसरुद्दीन ने नमस्ते की और कहा, क्या
चंदूलाल जी घर पर हैं?
गुलाबो आंखों में आंसू भर कर बोली कि क्या आपको
पता नहीं कि आज से तीन साल पहले उनका स्वर्गवास हो गया? हुआ यह कि घर
में कुछ मेहमान आए हुए थे और उनमें से किसी ने हरी मिर्च की मांग की थी। हरी मिर्च
लेने के लिए बगीचे में गए तो गए ही गए। वहीं उनका हार्टफेल हो गया। सच बात यह है
कि हरी मिर्च उन्होंने खुद ही बगीचे में लगाई थी और अपनी आंखों से वे यह नहीं देख
सकते थे कि उनकी हरी मिर्च इस तरह ये मेहमान बर्बाद करें।
नसरुद्दीन की आंखों में भी आंसू आ गए और वह
सहानुभूति प्रकट करते हुए बोला कि बड़ा दुख हुआ यह सुन कर। मगर क्या आप बताएंगी कि
फिर इसके बाद क्या हुआ?
गुलाबो बोली, हूं, होता
क्या? यही हुआ कि फिर हम लोगों ने हरी मिर्च की बजाय लाल मिर्च से ही काम
चलाया।
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होते हैं गजब के लोग मारवाड़ी! सिद्ध पुरुष
समझो! मगर तू सत्य प्रिया, चिंता छोड़ दे। तुझे ये गजब की चीजें
नहीं सीखनी हैं। तू तो अब मेरे हाथों में पड़ गई है, जहां कुछ
भूल-चूक से भी मारवाड़ की छाप रह गई होगी तो धुल जाएगी। मारवाड़ियों को तो मैं धोने
में लगा ही रहता हूं। क्योंकि कितना ही इनको धोओ, पर्त पर पर्त
धूल की निकलती चली आती है।
मैं तो मारवाड़ में बहुत भ्रमण किया हूं। एक से
एक गजब के लोग! कहानियां ही सुनी थीं पहले, फिर आंखों से
दर्शन करके बड़ी तृप्ति हुई। सच में ही पहुंचे हुए लोग हैं। झूठी ही बातें नहीं हैं
उनके बाबत जो प्रचलित हैं। अतिशयोक्ति उनके संबंध में की ही नहीं जा सकती, वे
हमेशा अतिशयोक्ति से एक कदम आगे रहते हैं। मेरा भी अनुभव यही है कि महा कंजूस! हद
दर्जे के कंजूस! धन को यूं पकड़ते हैं जैसे कोई परमात्मा को भी न पकड़े।
धन को पकड़ना एक ही बात की सूचना देता है कि
भीतर गहन दुख है, पीड़ा है। आनंदित व्यक्ति न धन को पकड़ता है,
न
पद को पकड़ता है। आनंदित व्यक्ति को जो मिल जाए उसको भोगता है; जो
मिल जाए उसका आनंद लेता है। आनंदित व्यक्ति धन का दुश्मन नहीं होता, न
धन को पकड़ता है, न धन को छोड़ कर भागता है।
मारवाड़ी या तो धन को पकड़ेगा या धन को छोड़ेगा।
धन को पकड़ेगा तो यूं पकड़ेगा कि वही सब कुछ है। और किसी दिन भयभीत हो जाएगा। और हो
ही जाएगा किसी दिन भयभीत, क्योंकि जब मौत करीब आने लगेगी तो
दिखाई पड़ेगा--मैंने जीवन अपना यूं ही गंवा दिया। तो फिर धन को छोड़ेगा, फिर
ऐसा भागेगा छोड़ कर...। वह भागता भी इसी डर से है कि अगर नहीं भागा तो फिर पकड़
लेगा।
पिया को खोजन में चली
ओशो
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