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Showing posts from June, 2018

भगवान ~ ओशो

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एक 6 साल का छोटा सा बच्चा अक्सर भगवान से मिलने की जिद किया करता था। उसे भगवान् के बारे में कुछ भी पता नही था पर मिलने की तमन्ना भरपूर थी।उसकी चाहत थी की एक समय की रोटी वो भगवान के सांथ खायेगा। 1 दिन उसने 1 थैले में 5-6 रोटियां रखीं और परमात्मा को को ढूंढने निकल पड़ा चलते चलते वो बोहत दूर निकल आया संध्या का समय हो गया। उसने देखा नदी के तट पर 1 बुजुर्ग माता बैठी हुई हैं , जिनकी आँखों में बोहत गजब की चमक थी , प्यार था , और ऐसा लग रहा था जैसे उसी के इन्तजार में वहां बैठी उसका रस्ता देख रहीं हों। वो 6 साल का मासूम बुजुर्ग माता के पास जा कर्र बैठ गया , अपने थैले में से रोटी निकाली और खाने लग गया। फिर उसे कुछ याद आया तो उसने अपना रोटी वाला हाँथ बूढी माता की ओर बढ़ाया और मुस्कुरा के देखने लगा , बूढी माता ने रोटी ले ली , माता के झुर्रियों वाले चेहरे पे अजीब सी ख़ुशी आ गई आँखों में ख़ुशी के आँशु भी थे ,,,, बच्चा माता को देखे जा रहा था , जब माता ने रोटी खा ली बच्चे ने 1 और रोटी माता को दी। माता अब बहुत खुश थी। बच्चा भी बहुत खुश था। दोनों ने आपस में बहुत प्यार और

तुम ही निर्माता हो ~ ओशो

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मैंने सुना है : एक आदमी को डर लगता था अपनी छाया से। और उसे बड़ा डर लगता था अपने पदचिह्नों से। तो उसने भागना शुरू किया। भागना चाहता था कि दूर निकल जाए छाया से ; और दूर निकल जाए अपने पदचिह्नों से ; दूर निकल जाए अपने से। मगर अपने से कैसे दूर निकलोगे ? जितना भागा , उतनी ही छाया भी उसके पीछे भागी। और जितना भागा , उतने ही पदचिह्न बनते गए। च्चांगत्सु ने यह कहानी लिखी है इस पागल आदमी की। और यही पागल आदमी जमीन पर पाया जाता है। इसी की भीड़ है। च्चांगत्सु ने कहा है , अभागे आदमी , अगर तू भागता न , और किसी वृक्ष की छाया में बैठ जाता , तो छाया खो जाती। अगर तू भागता न , तो पदचिह्न बनने बंद हो जाते। मगर तू भागता रहा। छाया को पीछे लगाता रहा। और पदचिह्न भी बनाता रहा। जिनसे तुम डरते हो , अगर उनसे भागोगे , तो यही होगा। दुख से डरे कि दुखी रहोगे। दुख से डरे कि नर्क में पहुंच जाओगे ; नर्क बना लोगे। दुख से डरने की जरूरत नहीं है। दुख है , तो जानो , जागो , पहचानो। जिन्होंने भी दुख के साथ दोस्ती बनायी और दुख को ठीक से आंख भरकर देखा , दुख का साक्षात्कार किया , वे अपूर्व संपदा के म

प्रेम क्या है ~ ओशो

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प्रेम है आनन्द की अभिव्यक्ति जिस मनुष्य के पास प्रेम है उसकी प्रेम की मांग मिट जाती है। और जिसकी प्रेम की मांग मिट जाती है वही केवल प्रेम दे सकता है। मांग रहा है वह दे नहीं सकता है। इस जगत में केवल वे लोग ही प्रेम दे सकते हैं , जिन्हें आपके प्रेम की कोई अपेक्षा नहीं है। महावीर बुद्ध इस जगत को प्रेम दे सकते हैं। वे प्रेम से बिल्कुल मुक्त हैं। उनकी मांग बिल्कुल नहीं है। आपसे कुछ नहीं मांग रहे हैं , सिर्फ दे रहे हैं। प्रेम का अर्थ है , जहां मांग नहीं है और केवल देना है। जहां मांग है , वहां प्रेम नहीं है , वहां सौदा है। जहां मांग है वहां प्रेम बिल्कुल भी नहीं है , वहां केवल लेन-देन है।यदि लेन-देन जरा-सा गलत हो जए तो जिसे हम प्रेम समझते थे , वह घृणा में परिणित हो जाएगा। लेन-देन गड़बड़ हो जाए तो मामला टूट जाएगा। सारी दुनिया में जो प्रेम टूट जाते हैं , उसमें क्या बात है ? उसमें कुल इतनी ही बात है कि लेन-देन गड़बड़ हो गई है। मतलब , हमने जितना चाहा , उतना नहीं मिला। जितना हमने सोचा था..दिया , लेकिन उसका उतना प्रतिफल नहीं मिला। सभी तरह के लेन-देन टूट जाते हैं। जहां ल

वासना और प्रेम ~ ओशो

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कामुकता विदा हो सकती है लेकिन स्त्री आकर्षण विदा नही होता है | आकर्षण जीवन के अंत तक रहता है | वासना नही जाती सिर्फ वासना परिवर्तन होती है जिसे प्रेम कहते है | वासना का ही दूसरा रूप प्रेम है | वासना और प्रेम अलग अलग नही है | वासना की शुद्तं अवस्था प्रेम है !  कोई भी पुरुष सीधा स्त्री की ओर आकर्षित होगा प्रथम उसका काम केंद्र जागेगा उर्जा काम के रूप में प्रकट होती है | लेकिन कामुकता जागते ही हम ध्यानी या द्रष्टा बन जाय तब जागी हुई काम उर्जा , ध्यान से प्रेम में परिवर्तन होती है .लेकिन तुम चाहते हो की काम बिलकुल पैदा ही न हो तब प्रेम का अस्तित्व भी सम्भव नही है | स्त्री में सीधा प्रेम उठता है क्योकि उसका मूल उर्जा केंद्र हदय स्थित है लेकिन पुरुष में सीधा प्रेम नही उठता है पुरुष की स्थति एक कुए जैसी है कुए रूपी मूलाधार में दुबकी लगाकर वापस ह्दय में उर्जा को लाना पड़ता है , तब काम उर्जा प्रेम बन जाती है | फिर वहा से वह उर्जा बहती है तब वह अन्यो के ह्दय भी जगाती है .काम से सिर्फ स्त्री का गर्भ केंद्र जगाया जा सकता है | जिससे संसार जन्मता है | उर्जा एक ही है उससे स्त्री का गर्भ

अगर बीज देखा तो फूल पर भरोसा नहीं आता ~ ओशो

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जीसस अपने गांव में आये , बड़े हैरान हुए. गांव के लोगों ने कोई चिंता ही न की। जीसस का वक्तव्य है कि पैगंबर की अपने गांव में पूजा नहीं होती। कारण क्या रहा होगा ? क्यों नहीं होती गांव में पूजा पैगंबर की ? गांव के लोगों ने बचपन से देखा : बढ़ई जोसेफ का लड़का है! लकड़ियां ढोते देखा , रिंदा चलाते देखा , लकड़ियां चीरते देखा , पसीने से लथपथ देखा , सड़कों पर खेलते देखा , झगड़ते देखा। गांव के लोग इसे बचपन से जानते हैं — बीज की तरह देखा। आज अचानक यह हो कैसे सकता है कि यह परमात्मा का पुत्र हो गया! नहीं , जिसने बीज को देखा है , वह फूल को मान नहीं पाता। वह कहता है , जरूर धोखा होगा , बेईमानी होगी। यह आदमी पाखंडी है। बुद्ध अपने घर वापस लौटे , तो पिता. सारी दुनियां को जो दिखाई पड़ रहा था वह पिता को दिखायी नहीं पड़ा! सारी दुनियां अनुभव कर रही थी एक प्रकाश , दूर — दूर तक खबरें जा रही थीं , दूर देशों से लोग आने शुरू हो गये थे ; लेकिन जब बुद्ध वापस घर आये बारह साल बाद , तो पिता ने कहा मैं तुझे अभी भी क्षमा कर सकता हूँ यद्यपि तूने काम तो बुरा किया है , सताया तो तूने हमें , अपराध तो तूने किया है ; ले

विमलकीर्ति का समर्पण ~ ओशो

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ओशो के शिष्यों में एक अनजाना सा नाम है- विमल कीर्ति यह जर्मनी सम्राट के पुत्र थे और ब्रिटेन प्रिंस चार्ल्स के बहनोई. इन्होने ओशो को जर्मनी में सुना और परिवार समेत ओशो कम्यून में आ कर बस गए और काम ले लिया ओशो के गेट कीपर का. ओशो के घर लाओत्ज़े हाउस की पहरेदारी करते -करते इन्हें बोधि प्राप्त हो गयी. प्रातः जब ओशो प्रवचन के लिए निकलते- यह उस सहस्र दल कमल का प्रथम दीदार करते. उन्हें ओशो की प्रत्येक दिव्य भंगिमा से प्यार हो गया था. ओशो ने उनसे मात्र सदा यही कहा- ' हेलो विमल कीर्ति ' और उत्तर में स्वामी विमल कीर्ति कहते- ' नमस्ते भगवान् ' हेलो विमल कीर्ति- उनके लिए जागरण का मन्त्र बन गया और द्वार की रक्षा निरहंकारिता और साक्षी की साधना. वह जब भी मूर्छा में जाने को होते- ओशो की आवाज़ गूंज जाती- ' हेलो विमल कीर्ति! और तत्क्षण होश में आ जाते. उन्होंने यही ध्यान किया. द्वार पर ओशो की प्रतीक्षा करना. मुख्य गेट खोलना - यह प्रार्थना में तब्दील हो गयी. उन्हें उस क्षण का इंतज़ार रहता की कब भगवान प्रातः बुद्धा हाल के लिए निकलेंगे और उन्ह

सत्य को कभी स्वीकार नहीं किया गया ~ ओशो

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मैंने सुना है , एक नाव पड़ी थी एक नदी के किनारे और चार कछुए छलांग लगाकर उसमें बैठ गए। हवा तेज थी , उनके धक्के से नाव चल पड़ी , वे बड़े प्रसन्न हुए। लेकिन एक बड़ा दार्शनिक सवाल उठ आया कि नाव कौन चला रहा है ? हम तो नहीं चला रहे। एक कछुए ने कहा , नदी चला रही है। देखते नहीं ? नदी की धार बही जा रही है , वही नाव को लिए जा रही है। दूसरे ने कहा , पागल हुए हो ? यह हवा है , नदी नहीं , जो नाव को चला रही है। बड़ा विवाद छिड़ गया।   तीसरे ने कहा , यह सब भ्रम है वह और भी बड़ा दार्शनिक रहा होगा , यह सब भ्रम है ; न हवा चला रही है , न नदी चला रही है ; न कोई चल रहा , न कहीं कोई जा रहा , यह सब सपना है ; हम नींद में देख रहे हैं। चौथा लेकिन चुप रहा। उन तीनों ने चौथे की तरफ देखा और कहा , तुम कुछ बोलते क्यों नहीं ? लेकिन चौथा फिर भी चुप रहा ; उसने कहा , मुझे कुछ भी पता नहीं। उसकी यह बात सुनकर वे जो तीनों आपस में लड़ रहे थे , सब साथी हो गए , और उस चौथे को उन्होंने धक्का देकर नदी में गिरा दिया कि बड़ा समझदार बना बैठा है। उसने बेचारे ने इतना ही कहा था कि मुझे कुछ पता नहीं