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Showing posts from May, 2018

जीवेष्णा ~ ओशो

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मैंने सुना है , इजिप्त में एक आश्रम था।  और उस आश्रम में आश्रम के नीचे ही मरघट था।  जमीन को खोद कर नीचे मरघट बनाया था।  हजारों वर्ष पुराना आश्रम था।  मीलों तक नीचे जमीन खोद कर उन्होंने कब्रगाह बनाई हुई थी। जब कोई भिक्षु मर जाता , तो पत्थर उखाड ? कर , उस नीचे के मरघट में डाल कर चट्टान बंद कर देते थे।  एक बार एक भिक्षु मरा। लेकिन कुछ भूल हो गई।  वह मरा नहीं था , सिर्फ बेहोश हुआ था।  उसे मरघट में नीचे डाल दिया।  चट्टान बंद हो गई।  पांच-छह घंटे बाद उस मौत की दुनिया में उसकी आंखें खुलीं , वह होश में आ गया।  उसकी मुसीबत हम सोच सकते हैं!  सोच लें कि हम उसकी जगह हैं।  वहां लाशें ही लाशें हैं सड़ती हुई , दुर्गंध , हड्डियां , कीड़े-मकोड़े , अंधकार , और उस भिक्षु को पता है कि जब तक अब और कोई ऊपर न मरे , तब तक चट्टान का द्वार न खुलेगा।  और उसे यह भी पता है कि अब वह कितना ही चिल्लाए...चिल्लाया , जानते हुए भी चिल्लाया कि आवाज ऊपर तक नहीं पहुंचेगी...क्योंकि आश्रम मील भर दूर है।  और मरघट पर तभी आते हैं आश्रम के लोग जब कोई मरता है। और बड़ी चट्टान से द्वार बंद है। 

संभोग से समाधि की ओर ( प्रवचन 49 ) ~ ओशो

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कुछ युवा एक रात्रि एक वेश्या को साथ लेकर सागर तट पर आये। उस वेश्या के वस छीनकर उसे नंगा कर दिया और शराब पीकर वे नाचने-गाने लगे। उन्हें शराब के नशे में डूबा देखकर वह वेश्या भाग निकली। रात जब उन युवकों को होश आया , तो वे उसे खोजने निकले। वेश्या तो उन्हें नहीं मिली , लेकिन एक झाड़ी के नीचे बुद्ध बैठे हुए उन्हें मिले। वे उनसे पूछने लगे ‘‘ महाशय , यहां से एक नंगी स्त्री को , एक वेश्या को भागते तो नहीं देखा ? रास्ता तो यही है। यहीं से ही गुजरी होगी। आप यहां कब से बैठे हुए हैं ?” बुद्ध ने कहा , ‘‘ यहां से कोई गुजरा जरूर है , लेकिन वह स्त्री थी या पुरुष , यह मुझे पता नहीं है। जब मेरे भीतर का पुरुष जागा हुआ था , तब मुझे स्त्री दिखायी पड़ती थी। न भी देखूं तो भी दिखायी पड़ती थी। बचना भी चाहूं तो भी दिखायी पड़ती थी। आंखें किसी भी जगह और कहीं भी कर लूं तो भी ये आंखें स्त्री को ही देखती थीं। लेकिन जब से मेरे भीतर का पुरुष विदा हो गया है , तबसे बहुत खयाल करूं तो ही पता चलता है कि कौन स्त्री है , कौन पुरुष है। वह कौन था , जो यहां से गुजरा है , यह कहना मुश्किल है। तुम पहले क्यों नहीं आये ? पहल

सम्राट वही जिसकी अब कुछ पाने के मांग न हो ~ ओशो

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एक फकिर था. एक बहुत बडे बादशाह से उसका बहुत गहरा प्रेम था. उस फकिर से गांव के लोगों ने कहा , बादशाह तुम्हें इतना आदर देते हैं , इतना सम्मान देते हैं. उनसे कहो कि गांव में एक छोटा सा स्कूल खोल दें. उसने कहा , मैं जाऊं , मैंने आज तक कभी किसी से कुछ मांगा नहीं , लेकिन तुम कहते हो तो तुम्हारे लिए मांगू. वह फकिर गया. वह राजा के भवन में पहुंचा. सुबह का वक्त था और राजा अपनी सुबह की नमाज पढ रहा था. फकिर पीछे खडा हो गया. नमाज पूरी की , प्रार्थना पूरी की. बादशाह उठा. उसने हाथ ऊपर फैलाया और कहा , हैं परमात्मा , मेरे राज्य की सीमाओं को और बडा कर. मेरे धन को और बढा , मेरे यश को और दूर तक आकाश तक पहुंचा. जगत की कोई सीमा न रह जाए जो मेरे कब्जे में न हो , जिसका मैं मालिक न हो जाऊं , हे परमात्मा , ऐसी कृपा कर. उसने प्रार्थना पूरी की , वह लौटा. उसने देखा कि फकिर सीढियों से नीचे उतर रहा है. उसने चिल्लाकर आवाज दी क्यों वापस लौट चले ? फकिर ने कहा , मैं सोचकर आया था कि किसी बादशाह से मिलने आया हूं. यहां देखा कि यहां भी भिखारी मौजुद है. और मैं तो दंग रह गया , जितनी बडी जिसकी मांग ह

ओशो: अष्‍टावक्र महागीता–(भाग–1) प्रवचन–1

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कहते हैं , बुद्ध जब पैदा हुए तो खड़े — खड़े पैदा हुए। मां खड़ी थी वृक्ष के तले। खड़े — खड़े.. मां खड़ी थी खड़े — खड़े पैदा हुए। जमीन पर गिरे नहीं कि चले , सात कदम चले। आठवें कदम पर रुक कर चार आर्य — सत्यों की घोषणा की , कि जीवन दुख है — अभी सात कदम ही चले हैं पृथ्वी पर — कि जीवन दुख है ; कि दुख से मुक्त होने की संभावना है ; कि दुख — मुक्ति का उपाय है ; कि दुख — मुक्ति की अवस्था है , निर्वाण की अवस्था है। लाओत्सु के संबंध में कथा है कि लाओत्सु बूढ़े पैदा हुए , अस्सी वर्ष के पैदा हुए ; अस्सी वर्ष तक गर्भ में ही रहे। कुछ करने की चाह ही न थी तो गर्भ से निकलने की चाह भी न हुई। कोई वासना ही न थी तो संसार में आने की भी वासना न हुई। जब पैदा हुए तो सफेद बाल थे ; अस्सी वर्ष के बूढ़े थे। जरथुस्त्र के संबंध में कथा है कि जब जरथुस्त्र पैदा हुए तो पैदा होते से ही खिलखिला कर हंसे। मगर इन सबको मात कर दिया अष्टावक्र ने। ये तो पैदा होने के बाद की बातें हैं। अष्टावक्र ने अपना पूरा वक्तव्य दे दिया पैदा होने के पहले। ये कथाएं महत्वपूर्ण हैं। इन कथाओं में इन व्यक्तियों के जीवन की सारी सार — संपदा है ,

बुद्ध को बुद्धत्व ~ ओशो

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बुद्ध के जीवन में घटना है कि बुद्ध ने छह वर्ष तक बड़ी खोज की। शायद ही किसी मनुष्य ने इतनी त्वरा से खोज की हो। सब कुछ दांव पर लगा दिया। जो भी जिसने बताया उसे पूरा-पूरा किया। तो कोई भी गुरु बुद्ध को यह न कह सका कि तू पहुंच नहीं रहा है , क्योंकि तेरी चेष्टा कम है। यह तो असंभव था। यह तो कहना ही संभव न था। क्योंकि चेष्टा तो उनकी इतनी समग्र थी कि उस संबंध में कोई भी शिकायत न की जा सकती थी। जो जिसने कहा , वह उन्होंने पूरी तरह किया। किसी गुरु ने कहा कि सिर्फ एक चावल के दाने पर – रोज एक चावल का दाना ही भोजन में ले कर – तीन महीने तक रहो , तो वे वैसे ही रहे। सूख कर हड्डी-हड्डी हो गए। पीठ पेट एक हो गए। श्वास लेना तक मुश्किल हो गया। क्योंकि इतनी कमजोरी आ गयी। जो जिसने बताया , वह उन्होंने पूरा किया। सब कर डाला , ज्ञान नहीं हुआ। क्योंकि किए से कभी ज्ञान नहीं होता। सब कर डाला , लेकिन उसमें भी कर्ता का भाव तो बना ही रहा। उपवास किया , जप किया , तप किया , योग साधा , लेकिन भीतर एक सूक्ष्म अहंकार तो बना ही रहा कि मैं कर रहा हूं। मुट्ठी बंधी रही। मैं मौजूद रहा। और उसे पाने की तो शर्त

ओशो: अष्‍टावक्र महागीता–(भाग–1) प्रवचन–1

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पश्चिम में वैज्ञानिक मन के परीक्षण के लिए स्याही के धब्बे ब्लाटिंग पेपर पर डाल देते हैं और व्यक्ति को कहते हैं , देखो , इसमें क्या दिखायी पड़ता है ? व्यक्ति गौर से देखता है , उसे कुछ न कुछ दिखाई पड़ता है। वहां कुछ भी नहीं है , सिर्फ ब्लाटिंग पेपर पर स्याही के धब्बे हैं — बेतरतीब फेंके गये , सोच — विचार कर भी फेंके नहीं गये हैं , ऐसे ही बोतल उंडेल दी है। लेकिन देखने वाला कुछ न कुछ खोज लेता है। जो देखने वाला खोजता है वह उसके मन में है , वह आरोपित कर लेता है। तुमने भी देखा होगा. दीवाल पर वर्षा का पानी पड़ता है , लकीरें खिंच जाती हैं। कभी आदमी की शक्ल दिखायी पड़ती है , कभी घोड़े की शक्ल दिखायी पड़ती है। तुम जो देखना चाहते हो , आरोपित कर लेते हो। रात के अंधेरे में कपड़ा टंगा है — भूत — प्रेत दिखायी पड़ जाते हैं। कृष्ण की गीता ऐसी ही है — जों तुम्हारे मन में है , दिखायी पड़ जायेगा। तो शंकर ज्ञान देख लेते हैं , रामानुज भक्ति देख लेते हैं , तिलक कर्म देख लेते हैं — और सब अपने घर प्रसन्नचित्त लौट आते हैं कि ठीक , कृष्ण वही कहते हैं जो हमारी मान्यता है। अष्टावक्र की गीता में तु

ओशो का स्वर्णिम बचपन

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मैं छोटा था तो मुझे बाल बड़े रखने का शौक था — इतने बड़े बाल कि मेरे पिता को अक्सर झंझट होती थी , क्योंकि उनके ग्राहक उनसे पूछते कि लड़का है कि लड़की ? और उन्हें बड़ी झंझट होती बार — बार यह बताने में कि भई लड़का है। मुझे तो कोई चिंता नहीं होती थी। लड़की होने में क्या बुराई थी! मुझसे तो कभी उनका ग्राहक कह देता कि बाई जरा पानी ले आ , तो मैं ले आता। मगर उनको बहुत कष्ट होता , वे कहते कि बाई नहीं है। मेरे लड़के को तुम लड़की समझ रहे हो। तो लोग कहते , लेकिन इतने बड़े — बड़े बाल! तो उन्होंने मुझसे एक दिन कहा कि ये बाल काटो , कि दिन भर की झंझट है , और या फिर तुम दुकान पर आया मत करो। घर — दुकान एक थे , तो जाने का कहीं कोई उपाय भी न था। और छुट्टी के दिन तो उनको बहुत मुश्किल हो जाती , वे कहते कि सुबह से सांझ तक मैं यह समझाऊं कि दूसरा काम करूं ? क्योंकि लोग पूछते हैं कि फिर इतने बड़े बाल क्यों ? तो आप कटवा क्यों नहीं देते ? तो तुम बाल कटवा डालो। मैंने उनसे कहा बाल तो नहीं कटेंगे। तो उन्होंने मुझे चपत मार दी। बस उस दिन मेरे उनके बीच एक बात निर्णीत हो गई , फैसला हो गया। मैं गया और मैंने सिर घुटवा ड

स्वर्ग और नर्क जीने के ढंग हैं ~ ओशो

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एक झेन फकीर के पास एक सम्राट मिलने गया था। सम्राट , सम्राट की अकड़! झुका भी तो झुका नहीं। औपचारिक था झुकना। फकीर से कहा: मिलने आया हूं , सिर्फ एक ही प्रश्न पूछना चाहता हूं। वही प्रश्न मुझे मथे डालता है। बहुतों से पूछा है ; उत्तर संतुष्ट करे कोई , ऐसा मिला नहीं। आप की बड़ी खबर सुनी है कि आपके भीतर का दीया जल गया है। आप , निश्चित ही आशा लेकर आया हूं कि मुझे तृप्त कर देंगे। फकीर ने कहा: व्यर्थ की बातें छोड़ो , प्रश्न को सीधा रखो। दरबारी औपचारिकता छोड़ो , सीधी - सीधी बात करो , नगद! सम्राट थोड़ा चौंका: ऐसा तो कोई उस से कभी बोला नहीं था! थोड़ा अपमानित भी हुआ , लेकिन बात तो सच थी। फकीर ठीक ही कह रहा था कि व्यर्थ लंबाई में क्यों जाते हो ? बात करो सीधी , क्या है प्रश्न तुम्हारा ? सम्राट ने कहा: प्रश्न मेरा यह है कि स्वर्ग क्या है और नर्क क्या है ? मैं बूढ़ा हो रहा हूं और यह प्रश्न मेरे ऊपर छाया रहता है कि मृत्यु के बाद क्या होगा - स्वर्ग या नर्क ? फकीर के पास उसके शिष्य बैठे थे , उस ने कहा: सुनो , इस बुद्धू की बातें सुनो! और सम्राट