ओशो: मेरा स्वर्णिम भारत ( प्रवचन– 6)
कथा है एक गांव में बुद्ध ठहरे हैं।
सुबह—सुबह एक शूद्र
उसका नाम था—सुदास,
वह उठा; अपने घर के पीछे
गया।
काम— धाम में लगने का वक्त हो गया।
घर के पीछे उसका पोखर था,
छोटी—सी तलैया। चमार था;
गांव में उसे कोई पानी भरने न दे,
तो अपनी ही तलैया से
अपना गुजारा करता था।
देखकर उसकी आंखें ठगी रह गयीं!
बे—मौसम कमल का फूल खिला।
उसने अपनी पत्नी को पुकारा,
‘सुन। यह क्या हुआ!
यह कभी नहीं हुआ!
मेरी जिंदगी हो गयी।
यह कोई मौसम है,
यह कोई समय है!
कली भी न थी रात तक,
और सुबह इतना
बड़ा फूल खिला!
इतना बड़ा फूल कि
कभी खिला नहीं देखा!
यह कैसे हुआ?’
उसकी पत्नी ने कहा,
‘हो न हो बुद्ध पास से गुजरे होंगे।
क्योंकि मैंने सुना है—जब बुद्ध गुजरते
हैं,
तो असमय फूल खिल जाते हैं।’
सुदास हंसने लगा।
उसने कहा कि ‘पागल!
यहां कहां बुद्ध गुजरेंगे!
इस चमार के झोपड़े के
पास से कहां बुद्ध गुजरेंगे!’
उसने आस—पास खबर की।
पता चला कि यह सच है;
सांझ ही बुद्ध का आगमन हुआ है।
वे इसी रास्ते से गुजरे हैं
और आगे जाकर
एक अमराई में रुके हैं।
तो सुदास ने कहा कि
‘फिर क्या करूं इस फूल का!
यह तो बड़ा शुभ अवसर है।
इस फूल को तोड़कर मैं सम्राट को बेच दूं।
सौ —पचास रुपये जरूर इनाम में मिल जायेंगे।
क्योंकि असमय का कमल!’
तो वह फूल को तोड़कर
राजमहल की तरफ जाता था।
चकित हुआ। राजा का रथ ही आ रहा था!
अभी सूरज ज्या रहा था
और राजा का रथ—स्वर्ण रथ—सूरज
में यूं चमक रहा था,
जैसे दूसरा सूरज ध्या रहा हो।
वह ठिठककर राह पर ही खड़ा हो गया।
माजरा क्या है!
रात इस गरीब के झोपड़े
के सामने से बुद्ध गुजरे;
सुबह सम्राट का स्वर्ण—रथ आ रहा है!
इस रास्ते पर कभी आया ही नहीं।
यह चमारों की बस्ती,
यहां सम्राट आयें किसलिए!
ठिठककर खडा हो गया।
हिम्मत ही न पड़ी कहने की कि
मैं फूल लेकर राजमहल
की तरफ आ रहा था।
लेकिन रथ खुद ही रुका।
सम्राट ने सारथी को कहा.
‘रुको। इस सुदास को बुलाओ।’
सुदास सम्राट के जूते बनाता था।
सुदास का नाम सम्राट को मालूम था।
सुदास डरते हुए गया और कहा कि
‘ फूल लेकर आपकी तरफ ही आ रहा था।
असमय का फूल है,
मैंने सोचा—किसको भेंट
करूं!
आपके ही योग्य है।’
सम्राट ने कहा,
‘मांग, क्या मांगता है?
जो मांगेगा इसके बदले में—दूंगा।’
सुदास ने कहा कि ‘जो आप दे देंगे।’
‘नहीं’ सम्राट ने कहा,
‘तू मांग। क्योंकि यह फूल
मैं बुद्ध को चढ़ाने ले जाऊंगा।
तू जो मांगेगा, दूंगा।
बुद्ध प्रसन्न होंगे देखकर—
ऐसे असमय का फूल!
इतना सुंदर—इतना
बड़ा फूल कमल का!’
सुदास के गरीब मन में भी
एक अमीर चाह उठी कि क्यों
न मैं ही चढ़ा दूं जाकर फूल!
रोटी—रोजी तो चल ही जाती है।
मगर लालच भी मन में उठा कि
आज सम्राट कहता है—
जो मांगना हो मांग ले!
लेकिन इसके
पहले कि वह कुछ कहे,
वह सोच रहा था कि
कहूं—स्व हजार स्वर्ण अशर्फियां;
हिम्मत नहीं बंध रही थी कि एक
हजार स्वर्ण अशर्फियां मांग रहा
हूं एक फूल के लिए!
तो थोड़ा झिझक रहा था।
तभी सम्राट के रथ के पीछे ही
उसके वजीर का रथ आकर रुका।
और वजीर ने कहा, ‘सुदास, बेच
मत देना;
मैं भी खरीददार हूं। मैं चढ़ाऊंगा बुद्ध को।
और सम्राट तो औपचारिकता वश जा रहे हैं।
इनको बुद्ध से कुछ लेना—देना नहीं है।
जाना चाहिए, इसलिए जा रहे
हैं।
मैं बुद्ध का प्रेमी हूं, इसलिए
सम्राट को कहा कि ‘देखें,
आप बीच में न आयें।
आप प्रतिस्पर्धा में न पड़े।
निश्चित ही मैं आप से कैसे जीतूंगा,
अगर प्रतिस्पर्धा हो जाये।
मगर आप बीच में न आयें,
क्योंकि आपके लिए तो
सिर्फ औपचारिक है जाना;
मेरे हृदय की बात है।’—
’सुदास, तू मल जो मांगेगा, दे
दूंगा।’
सुदास ने सोचा,
‘जब बात यूं है,
तो अब एक हजार
अशर्फियां क्या मांगनी;
दो हजार अशर्फियां मांग लूं!’
मगर उसकी जबान न खुले।
दो अशर्फियां मांगने में
भी बात ज्यादा होती थी;
दो हजार अशर्फियां!
और तभी नगरसेठ का
भी रथ आकर रुका,
उसने कहा,
‘सुदास, बेचना मत,
मैं भी खरीददार हूं।’
नगरसेठ तो इतना
बड़ा सेठ था कि
सम्राट को भी
खरीद सकता था।
सम्राट को जब जरूरत पड़ती थी,
तो उससे ही उधार मांगता था।
और इस अकेले सम्राट को ही नहीं,
आसपास के और बड़े सम्राट भी इस
नगरसेठ से धन उधार लेते थे। कहते थे
कि इस नगरसेठ के पास धन तौला जाता था—
गिना नहीं जाता था।
क्योंकि गिनने की फुर्सत किसको थी!
तो फावड़े से भर— भरकर टोकरियों
में अशर्फियां गिनी जाती थीं,
कि कितनी टोकरियां गिने
एक—एक दो—दो! ऐसे गिनती
करने की फुर्सत किसको थी!
उस सेठ ने कहा कि
‘तू जो कहेगा। लाख
अशर्फियां मांगना हो,
लाख अशर्फियां मांग।
लेकिन फूल मैं चढ़ाऊंगा।’
सुदास ठिठका खड़ा रह गया।
उसने कहा, ‘फूल बेचना नहीं
है।’
उन तीनों ने एक साथ पूछा— ‘क्यों।’
सुदास ने कहा कि ‘जिस फूल के
लिए एक लाख अशर्फियां देने
के लिए कोई तैयार हो,
गरीब आदमी हूं मगर मेरे मन
में भी गहन भाव उठा कि फिर
मैं ही क्यों न इस फूल को
बुद्ध के चरणों में चढा दूं।
जरूर उन चरणों में चढ़ाने का
मजा लाख अशर्फियों से ज्यादा होगा।
नहीं तो तुम एक अशर्फी न देते’,
नगरसेठ से उसने कहा,
‘मुझे! लाख अशर्फियां दे रहे हो!
सम्राट राजी है, वजीर राजी है;
तुम
राजी हो।
और मुझे ऐसा लगता है
कि अगर गांव में जाऊं तो
और भी लोग राजी हो जायेंगे।
मुझे इसके जितने दाम चाहिए,
उतने मिल सकते हैं।
लेकिन अब बेचना ही नहीं है।’
नगरसेठ ने कहा,
‘दो लाख
अशर्फियां देता हूं।
तू जो मांग—मुंहमांगा।’
उसने कहा, ‘ अब बेचना ही
नहीं है।
सुदास गरीब है
मगर इतना गरीब नहीं। चमार है।
काम तो चल ही जाता है
मुझ गरीब का—जूते सीने से
ही।
यह मौका मैं नहीं छोडूंगा।
यह फूल मैं ही चढ़ाऊंगा।’
और सुदास ने जाकर वह फूल
बुद्ध के चरणों में स्वयं चढ़ाया।
और बुद्ध ने उस सुबह अपने
प्रवचन में कहा कि ‘सुदास
ने आज इतना कमाया है,
जितना कि सदियों में
सम्राट नहीं कमा सकते।
पूछो इस सम्राट से,
पूछो इस वजीर से
पूछो इस नगरसेठ से!
आज इन सब को हरा दिया सुदास ने।
आज इस शूद्र ने अपने को
परम श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया।
आज लात मार दी धन पर।
आज इसका अपरिग्रही
रूप प्रगट हुआ है।
यह धन्यभागी है।’
और सुदास पर ऐसी वर्षा हुई
उस दिन अमृत की कि फिर लौटा नहीं।
उसने कहा, ‘अब जाना क्या!
जब फूल चढ़ाने से इतना मिला,
तो अपने को भी चढ़ाता हूं।’
सुदास भिक्षु हो गया।
फूल ही नहीं चढ़ा;
खुद भी चढ़ गया।
ओशो: मेरा स्वर्णिम भारत–(प्रवचन–6)
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