राम और जीसस ~ ओशो
आदिवासियों के एक गांव में मैं ठहरा था। बस्तर
में आदिवासियों को ईसाई बनाया जाता है, काफी ईसाई बना लिए गए हैं। मुझे कुछ
एतराज नहीं है; क्योंकि वे हिंदू थे तो मूढ़ थे, ईसाई
हैं तो मूढ़ हैं। मूढ़ता तो कुछ बदली नहीं है। मूढ़ता तो कुछ मिटती नहीं है। तो मूढ़
इस भीड़ में भेड़ों के साथ रहे कि उस भीड़ में रहे और भेड़ों के साथ रहे, क्या
फर्क पड़ता है? मूढ़ता तो वही की वही है। मगर किस तरकीब से उन
गरीब आदिवासियों को ईसाई बनाया जा रहा है! एक ईसाई पादरी उनको समझा रहा था। उसने
एक राम की प्रतिमा बना रखी थी और जीसस की, बिलकुल एक जैसी। और उनको समझा रहा था
कि देखो, यह बाल्टी भरी रखी है, इसमें मैं दोनों को डालता हूं। तुम देख
लो। जो डूब जाएगा उसके साथ रहे तो तुम भी डूबोगे। जो तैरेगा वही तुमको भी तिराएगा।
और बात बिलकुल साफ थी। सारे आदिवासी उत्सुक
होकर बैठ गए कि भई यह देखने वाली बात है, इससे सब सिद्ध ही हुआ जा रहा है।
प्रमाण सामने है आंख के। दोनों मूर्तियां पादरी ने छोड़ दीं पानी में। रामजी तो
एकदम डुबकी मार गए। जैसे रास्ता ही देख रहे थे कि गोता मारें! गोता मारा और निकले
ही नहीं। और जीसस तैरने लगे। जीसस की मूर्ति बनाई थी लकड़ी की और राम की मूर्ति
बनाई थी लोहे की। उस पर खूब...रंग एक-सा कर दिया था दोनों पर, पुताई
एक-सी कर दी थी, ऊपर से एक जैसी लगती थीं।
एक शिकारी, जो बस्तर शिकार
करने आया था, मेरा परिचित व्यक्ति था। मैं जिस विश्वविद्यालय
में प्रोफेसर था वहीं वे प्रोफेसर थे। और उनका शौक एक ही था--शिकार। उसने यह हरकत
देखी। वह समझ गया फौरन कि यह क्या जालसाजी है। उसने कहा कि ठहरो, इससे
कुछ तय नहीं होता। क्योंकि हमारे शास्त्रों में तो अग्नि-परीक्षा लिखी है, जल-परीक्षा
लिखी ही नहीं। आदिवासियों ने कहा, यह बात भी सच है। अरे सीता मैया भी जब
आई थीं तो कोई जल-परीक्षा हुई थी? अरे अग्नि-परीक्षा हुई थी! पादरी
घबड़ाया कि यह बड़ा उपद्रव हो गया। यह दुष्ट कहां से आ गया और! भागने की भी कोशिश
पादरी ने की, लेकिन आदिवासियों ने कहा, भैया
अब ठहरो, अग्नि-परीक्षा और हो जाए। यह बेचारा ठीक ही कह रहा है, क्योंकि
हमारे शास्त्रों में अग्नि-परीक्षा का उल्लेख है। सो आग जलाई गई। अब पादरी बैठा है
उदास कि अब फंस गए। अब भाग भी नहीं सकते। और जीसस और रामचंद्र जी को अग्नि में
उतार दिया। रामचंद्र जी तो बाहर आ गए अग्नि से, जीसस खाक हो गए।
सो आदिवासियों ने कहा, भैया, अच्छा बचा लिया हमें। अगर आज
अग्नि-परीक्षा न होती तो हम सब ईसाई हुए जा रहे थे।
और यह बहुत पुरानी तरकीब है। यह सदियों से इसका
उपयोग किया जा रहा है। और फिर भी अजीब आदमी है कि इन्हीं बातों को, इन्हीं
जालसाजियों को फिर स्वीकार करने को राजी हो जाता है। कैसे-कैसे...!
सहज आसिकी नाहिं,
प्रवचन~४,
ओशो
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