ओशो: अष्टावक्र महागीता–(भाग–1) प्रवचन–1
पश्चिम में वैज्ञानिक मन के परीक्षण के लिए
स्याही के धब्बे ब्लाटिंग पेपर पर डाल देते हैं और व्यक्ति को कहते हैं, देखो,
इसमें
क्या दिखायी पड़ता है? व्यक्ति गौर से देखता है, उसे
कुछ न कुछ दिखाई पड़ता है। वहां कुछ भी नहीं है, सिर्फ ब्लाटिंग
पेपर पर स्याही के धब्बे हैं—बेतरतीब फेंके गये, सोच—विचार
कर भी फेंके नहीं गये हैं, ऐसे ही बोतल उंडेल दी है। लेकिन देखने
वाला कुछ न कुछ खोज लेता है। जो देखने वाला खोजता है वह उसके मन में है, वह
आरोपित कर लेता है।
तुमने भी देखा होगा. दीवाल पर वर्षा का पानी
पड़ता है, लकीरें खिंच जाती हैं। कभी आदमी की शक्ल दिखायी पड़ती है, कभी
घोड़े की शक्ल दिखायी पड़ती है। तुम जो देखना चाहते हो, आरोपित कर लेते
हो।
रात के अंधेरे में कपड़ा टंगा है— भूत—प्रेत
दिखायी पड़ जाते हैं।
कृष्ण की गीता ऐसी ही है—जों तुम्हारे मन
में है, दिखायी पड़ जायेगा। तो शंकर ज्ञान देख लेते हैं, रामानुज
भक्ति देख लेते हैं, तिलक कर्म देख लेते हैं—और सब अपने घर
प्रसन्नचित्त लौट आते हैं कि ठीक, कृष्ण वही कहते हैं जो हमारी मान्यता
है।
अष्टावक्र की गीता में तुम कोई अर्थ न खोज
पाओगे। तुम अपने को छोड़ कर चलोगे तो ही अष्टावक्र की गीता स्पष्ट होगी।
अष्टावक्र का सुस्पष्ट संदेश है। उसमें जरा भी
तुम अपनी व्याख्या न डाल सकोगे। इसलिए लोगों ने टीकाएं नहीं लिखीं। टीका लिखने की
जगह नहीं है; तोड़ने—मरोड़ने का उपाय नहीं है; तुम्हारे
मन के लिए सुविधा नहीं है कि तुम कुछ डाल दो। अष्टावक्र ने इस तरह से वक्तव्य दिया
है कि सदियां बीत गईं, उस वक्तव्य में कोई कुछ जोड़ नहीं पाया, घटा
नहीं पाया। बहुत कठिन है ऐसा वक्तव्य देना। शब्द के साथ ऐसी कुशलता बड़ी कठिन है।
इसलिए मैं कहता हूं एक अनूठी यात्रा तुम शुरू
कर रहे हो।
ओशो: अष्टावक्र महागीता–(भाग–1)
प्रवचन–1
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