प्रेम की आंख ~ ओशो
छठवां प्रश्न: ? अतीत में जितने
सदगुरु हुए, उनमें भगवान कृष्ण पूर्णावतार कहे गए हैं। मेरा
विश्वास है कि आपकी अभिव्यक्ति इतनी ऊंची और श्रेष्ठ है, कि आने वाला युग
आपको कृष्ण से भी ऊपर रखेगा। क्या इस पर आप कुछ प्रकाश डालेंगे? …
उस जगत में न तो कोई छोटा होता, न
बड़ा। न तो कृष्ण बड़े हैं, न राम छोटे। न कृष्ण बड़े हैं, न
क्राइस्ट छोटे हैं। न कृष्ण बड़े हैं, न महावीर छोटे हैं। छोटे और बड़े का
हिसाब, अज्ञान का हिसाब है, अंधेरे के मापदंड है, प्रकाश
में सब मापदंड खो जाते हैं।
लेकिन भक्त के पास तो प्रेम की आंख होती है।
इसलिए जो कृष्ण को प्रेम करता है, स्वभावतः, कृष्ण उसके लिए
सबसे बड़े हैं। इसमें भी कुछ भूल नहीं है। यह भक्त की तरफ से बताई गई बात है। भक्त
तो अंधेरे में खड़ा है। उसे तो सिर्फ एक दीए का दर्शन हुआ है, वह
कृष्ण का दिया है। उसे महावीर के दीए का कोई पता नहीं। उसे तो एक ही दीए से पहचान
हुई है, वह कृष्ण का दीया है। तो वह कहता है, यह दीया सबसे
बड़ा है। कोई दीया इतना बड़ा नहीं है, सब दीए इससे छोटे हैं। वह असल में कह
ही नहीं रहा है कि सब दीए इससे छोटे हैं, वह इतना ही कह रहा है कि मेरे हृदय को
इस दीए ने ऐसा भर दिया है कि इससे बड़ा कोई दीया नहीं हो सकता। जगह ही नहीं बची
मेरे हृदय में, अब और बड़ा क्या हो सकता है?
मजनू पागल था लैला के पीछे। गांव के नरेश ने
उसे बुलाया, क्योंकि दया आने लगी लोगों को। पागल की तरह दिन
रात लैला...लैला...की रट लगाए रहता। नरेश ने अपने महल की बारह जवान सुंदरतम
लड़कियां लाकर खड़ी कर दीं, और कहा, तू पागल है।
लैला साधारण सी लड़की है। मैंने भी उसे देखा है। तू भरोसा मान। मेरी परख तुझसे
ज्यादा है। जिंदगीभर औरतों के बीच रहा हूं। वह बिलकुल साधारण काली-कलूटी लड़की है।
तू नाहक पागल है। अगर वह इतनी सुंदर होती, जैसा तू समझ रहा है, तो
मेरे राजमहल में होती, सड़क पर हो ही नहीं सकती थी। तू भरोसा मान। ये
बारह लड़कियां तेरे सामने खड़ी हैं, ये सुंदरतम हैं। इस राज्य में इन से
सुंदर लड़कियां तू न खोज पाएगा। कोई भी चुन ले।
मजनू हंसने लगा। उसने कहा, "आपने
लैला को देखा ही नहीं।'
सम्राट ने कहा, "तू पागल है?
मैंने
देखा। तेरी वजह से देखना पड़ा। तू महल के आसपास चिल्लाए फिरता है, लैला...लैला...।
यह कौन लैला है? एक आदमी पागल हुआ, देखना है।
बुलाकर देखा।'
मजनू ने कहा कि नहीं, आप देख ही नहीं
सकते। लैला को देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए। आपके पास मेरी आंख कहां? मेरी
आंख से ही सिर्फ लैला देखी जा सकती है। उस जैसी सुंदर न तो कभी कोई स्त्री हुई है,
न
कभी होगी। और मैं आज की ही नहीं कहता, भविष्य की भी कहता हूं।
भक्त की आंख तो मजनू की आंख है। शिष्य की आंख
तो मजनू की आंख है। वह एक के प्रेम में पड़ गया। बात बिलकुल सही है। कोई जरूरत भी
नहीं है मजनू को, कि लैला से सुंदर कोई स्त्री कहीं हो, ऐसा
वह माने। कोई कारण भी नहीं है। श्रद्धा तो पूर्ण होती है। जब श्रद्धा पूर्ण होती
है, तो सब खो जाता है, एक ही रह जाता है। श्रद्धा तो अनन्य
होती है। दूसरे कोई बचते नहीं ।
तो जिसने कृष्ण को प्रेम किया है, कृष्ण
उसके लिए पूर्णावतार हैं। जिसने महावीर को प्रेम किया है, उसके लिए महावीर
तीर्थंकर है, उसके लिए महावीर तीर्थंकर हैं, कृष्ण
कुछ भी नहीं।
जैनों ने कृष्ण को नर्क में डाल रखा है। उनके
शास्त्र कहते हैं, कृष्ण सीधे नर्क गए हैं--सातवें नर्क! क्योंकि
इसी आदमी ने महाभारत का युद्ध करवाया। अर्जुन तो जैन मालूम पड़ता है। उसमें तो बड़ी
सदबुद्धि पैदा हुई थी। इस कृष्ण ने उसको भटकाया और भरमाया। और उस बेचारे ने लाख
उपाय किया कि निकल जाए पंजे से। हजार उसने संदेह उठाए। बाकी यह आदमी भी एक था,
जिसने
सब तरफ से घेर-घारकर उसको फंसा दिया। युद्ध करवा दिया। भयंकर उत्पात हुआ, हिंसा
हुई। शायद महाभारत जैसा बड़ा युद्ध फिर कभी हुआ ही नहीं। भारत की तो रीढ़ ही टूट गई
उस युद्ध में। उसके बाद भारत फिर कभी खड़ा ही नहीं हो सका। वह सारा जिम्मा कृष्ण का
है। तो जैनों ने बड़ी हिम्मत की, उन्होंने सातवें नर्क में डाल दिया। और
आदमी बलशाली था, यह तो मानना ही पड़ेगा। नहीं तो अर्जुन को भी
कैसे भटका देता? और आदमी बलशाली है, हजारों लोग उसको
प्रेम करते हैं, यह भी मानना पड़ेगा। तो जैनों ने इतनी उदारता
बरती है, कि अगली सृष्टि में, जब यह सृष्टि पूर्ण नष्ट हो जाएगी,
तब
तक तो कृष्ण को नर्क में रहना ही पड़ेगा। फिर अगली सृष्टि में वे पहले तीर्थंकर
होंगे। मगर तब तक तो नर्क की महाअग्नि में जलना पड़ेगा।
अब तुम सोचो। किसी को कृष्ण पूर्ण अवतार हैं,
उनके
सामने सब फीके हैं, सब अधूरे हैं। और किसी के लिए कृष्ण नर्क में
डालने योग्य है। और मैं किसी को, इन दोनों में से, सही-गलत
नहीं कह रहा हूं। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं, एक प्रेमी की
नजर है। एक मित्र की नजर है, एक शत्रु की नजर है। ये दोनों ही अपनी
नजर के संबंध में कुछ कह रहे हैं, कृष्ण के संबंध में कुछ भी नहीं कह रहे
हैं।
अगर तुम्हें मुझसे प्रेम हो गया, तो
जो तुम कह रहे हो, मेरे संबंध में नहीं है, वह तुम अपने
प्रेम के संबंध में कह रहे हो; वह मेरे संबंध में नहीं, वह
तुम अपनी श्रद्धा के संबंध में कह रहे हो।
आदमी सदा अपने संबंध में ही कहता है। किसी और
के संबंध में कहने का उपाय नहीं है। अगर तुम्हें मेरी अभिव्यक्ति बहुत प्रीतिकर
मालूम पड़ती है, तो तुम अपनी संबंध में कुछ कह रहे हो, कि
यह अभिव्यक्ति तुम्हें जमती हैं। यह तुम्हारे हृदय को छूती है। यह तुम्हारे हृदय
में कोई तार छेड़ देती है। बस, इतनी बात है। उस लोक में कोई आगे नहीं,
कोई
पीछे नहीं, कोई छोटा नहीं, कोई बड़ा नहीं,
मुहम्मद,
महावीर,
कृष्ण,
क्राइस्ट--
जैसे ही अंधेरे का जगत समाप्त हुआ, सभी
एक जैसे हो जाते। सब रंग, सब भेद, सब भिन्नताएं
अंधेरे में है। जागे हुए पुरुषों में कोई भेद नहीं है।
लेकिन तुम सभी जागे पुरुषों को प्रेम तो न कर
पाओगे। सभी जागे पुरुषों को प्रेम करना हितकर भी नहीं होगा; क्योंकि जितने
तुम्हारे प्रेम-पत्र होंगे, उतना ही तुम्हारा हृदय बंट जाएगा। और
अगर हृदय बंट जाए, तो श्रद्धा भी बंट जाएगी। और बंटी हुई श्रद्धा
से तुम कभी सत्य तक न पहुंच सकोगे।
इसलिए, मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम, गांधी
जैसा भजन करवाते हैं--अल्ला ईश्वर तेरा नाम! नहीं कहता, कि वह करो।
तुमको नाम अपना चुन लेना है। यह तो अल्लाह या ईश्वर। क्योंकि दोनों नाम तुम लेते
रहोगे, तुम्हारा हृदय सदा ही बंटा रहेगा। वह कभी पूरा न हो पाएगा।
और गांधी जी अपनी ही बात को पूरा मान न सके,
मरते
वक्त जब गोली लगी, तो "राम' निकला,
"अल्लाह' न निकला। वह बात-चीत थी। वह राजनीति होगी,
धर्म
नहीं था। जब गोली लगी, तब "अल्लाह' नहीं निकला,
तब
तो राम निकला, "हे राम' वह बिलकुल ठीक
है। वह बिलकुल गैर-राजनीतिक आवाज है। मरते वक्त कोई राजनीतिज्ञ हो सकता है?
मरते
वक्त तो जो था हृदय में, वह निकला, जिंदगी में तो
सब लीपा-पोती थी।
मैं तुम से नहीं कहता, चुन लो। मैं तुम
से नहीं कहता कि तुम महावीर को भी पूजो, बुद्ध को भी पूजो, कृष्ण
को भी पूजो--नहीं। पूजा तो अनन्य होती है। तुम चुन लो। क्योंकि मुझे इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता। कि तुम किसको चुनते हो। फर्क इससे पड़ता है, तुम पूजा करते
हो या नहीं, बस!
पूजा पूरी हो। तुम पत्थर चुन लो, वृक्ष
के नीचे रखा, दुनिया कहे पत्थर है, तुम फिक्र मत
करो। तुम्हारा अगर हृदय वहां लग गया, और पत्थर से तुम्हारा रास जम गया और
तुम नाचने लगे पत्थर के पास, तो वहां भगवान है तुम्हारे लिए। तुम
उसी पत्थर से पहुंच जाओगे। तुम फिर किसी की मत सुनो। तुम फिर अंधे होकर पत्थर के
पागल हो जाओ, तुम नाचो, तुम पूजा करो।
पत्थर ही तुम्हारी अर्चना और तुम्हारा आराध्य बन जाए। तुम वहीं से पहुंच जाओगे।
क्योंकि कोई पात्र से नहीं पहुंचता, प्रेम-पात्र से; प्रेम से
पहुंचता है। श्रद्धा-पात्र से नहीं पहुंचता है, श्रद्धा से
पहुंचता है।
तुम कृष्ण, राम, बुद्ध
से नहीं पहुंचते, तुम्हारी पूजा के भाव से पहुंचते हो वह पूजा का
भाव जहां तुम्हें आ गया हो, फिर तुम बिलकुल फिक्र मत करना, फिर
तुम कहना कि कृष्ण पूर्ण अवतार है, और इनसे ऊपर कोई भी नहीं। कोई चिंता मत
करना। यह अंधेरे की भाषा है। लेकिन तुम अंधेरे में हो। अभी तुम प्रकाश की भाषा
बोलोगे, तो भाषा ही गलत होगी। झूठी होगी अंधेरे को पार कर लो। कृष्ण के
सहारे। जिस दिन तुम प्रकाश में पहुंचोगे, उस दिन तुम हंसोगे कि मैं भी कैसा पागल
था, कि किसी को छोटा कहा, किसी को बड़ा कहा; किसी
को आगे कहा, किसी को पीछे कहा। यहां प्रकाश के लोग में तो
सब समान हो गए हैं।
ओशो
Comments
Post a Comment