वरदान ~ ओशो


ऐसी कथा है कि जुन्नून एक सूफी फकीर हुआ।

वह इतना परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया
कि देवदूत उसके द्वार पर प्रकट हुए।

और उन्होंने कहा कि परमात्मा ने खबर भेजी है
कि हम तुम्हें वरदान देना चाहते हैं,
तुम जो भी वरदान मांगो मांग लो।




जुन्नून ने कहा, बड़ी देर कर दी;
कुछ वर्ष पहले आते तो बहुत
मांगने की आकांक्षाएं थीं।
अब तो हम परमात्मा को दे सकते हैं।
अब तो इतना है! उसकी
कृपा वैसे ही बरस रही है।
अब हमें कुछ चाहिए नहीं।
उसने वैसे ही बहुत दे दिया है,
इतना दे दिया है कि अगर उसको
भी कभी जरूरत हो तो हम दे सकते हैं।

लेकिन देवदूतों
ने जिद्द की। ऐसा घटता है।
जब तुम नहीं मांगते तब
सारी दुनिया देना चाहती है,
सारा अस्तित्व देना चाहता है।
जब तुम मांगते थे,
हर द्वार से ठुकराए गए।
देवदूतों ने कहा कि नहीं,
यह तो ठीक न होगा।
कुछ तो मांगना ही पड़ेगा।

जुन्नून ने कहा कि तो फिर तुम्हें
जो ठीक लगता हो दे दो।
तो उन्होंने कहा,
हम तुम्हें यह वरदान देते हैं
कि तुम जिसे भी छुओगे,
वह अगर मुर्दा भी हो तो जिंदा हो जाएगा,
बीमार हो तो स्वस्थ हो जाएगा।
उसने कहा, ठहरो! ठहरो! अभी दे मत देना।

देवदूतों ने कहा,
क्या प्रयोजन ठहरने का?
उसने कहा, ऐसा करो,
मेरी छाया को वरदान दो,
मुझे मत।

क्योंकि अगर मैं किसी को
छुऊंगा और वह जिंदा हो जाएगा
तो उसे धन्यवाद देना पड़ेगा।
सामने ही रहूंगा खड़ा।
और इस संसार में लोग
धन्यवाद देने से भी डरते हैं।
मरना पसंद करेंगे,
लेकिन अनुगृहीत होना नहीं।

इससे उनके अहंकार
को चोट लगती है।
तुम ऐसा करो,
मेरी छाया को वरदान दे दो।
मैं तो निकल जाऊं,
मेरी छाया जिस पर पड़ जाए,
वह ठीक हो जाए।

ताकि किसी को यह पता भी
न चले कि मैंने ठीक किया है।
और मैं तो जा चुका होऊंगा,
और छाया को धन्यवाद देने
की किसको जरूरत है?

यह जुन्नून बड़ी समझ
की बात कह रहा है।
संत अगर देना भी चाहें तो
तुम लेने को राजी नहीं होते।
संत अगर उंडेलना भी चाहें तो
तुम्हारा हृदय का पात्र सिकुड़ जाता है।
तुम लेने तक में भयभीत हो गए हो।
तुम्हारे प्राण इतने छोटे हो गए हैं,
देना तो दूर, तुम लेने तक में भयभीत हो।

तुम्हारे जीवन के बहुत से
अनुभवों से तुमने यही सीखा है:
जिससे भी लिया उसी ने गुलाम बनाया।

उसी अनुभव के आधार पर
तुम संतों के साथ
भी व्यवहार करते हो।
बड़ी भूल हो जाती है।
संत तो वही है जो तुम्हें देता है
और मुक्त करता है, और देता है
और तुम्हें मालिक बनाता है।

ओशो : ताओ उपनिषद

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